साल का दूसरा सूर्यग्रहण जुलाई में

Image: Best of Year 2017: Solar Eclipse Visible Across Swath Of U.S.

सूर्यग्रहण 2019

इस वर्ष का दूसरा सूर्य ग्रहण 2 जुलाई 2019 दिन मंगलवार को लग रहा है इसकी अवधि लगभग 4 घंटे तक रहेगी। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इस दिन गर्भवती महिलाओं को विशेष सावधानी बरतने की जरूरत होती है। सूर्य ग्रहण से उनके कुंडली में ग्रह दोष के कारण उनके और बच्चे के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका रहती है। हालांकि इस सूर्य ग्रहण से ऐसी आशंका नहीं है क्योंकि यह सूर्य ग्रहण भारत में नहीं दिखाई देगा। यह दक्षिण अमेरिका, दक्षिण मध्य अमेरिका तथा प्रशान्त महासागर में दिखाई देगा। इससे पहले साल का पहला सूर्यग्रहण 5 जनवरी को था। साल का तीसरा और आखिरी सूर्यग्रहण दिसंबर में दिखाई देगा।

ग्रहण का प्रारम्भ रात्रि में 10 बजकर 25 मिनट पर, 
ग्रहण काल मध्य रात्रि 12 बजकर 53 मिनट पर तथा 
ग्रहण समाप्त रात्रि 3 बजकर 21 मिनट पर

सूर्यग्रहण - एक परिचय

भौतिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य कुछ समय के लिए ढक जाता है, उसी घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। अन्य शब्दों में, पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की। कभी-कभी चाँद, सूरज और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है जिससे धरती पर काला साया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना अमावस्या को होती है। 

अक्सर चाँद, सूरज के सिर्फ़ कुछ हिस्से को ही ढ़कता है। यह स्थिति खण्ड-ग्रहण(Partial Eclipse) कहलाती है। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि चाँद सूरज को पूरी तरह ढँक लेता है। इसे पूर्ण-ग्रहण(Full Eclipse) कहते हैं। पूर्ण-ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। अधिकतर खंड-ग्रहण दिखाई देता है। पूर्ण-ग्रहण के समय चाँद को सूरज के सामने से गुजरने में लगभग दो घण्टे लगते हैं। चाँद सूरज को पूरी तरह से, ज़्यादा से ज़्यादा, सात मिनट तक ढँकता है। इन कुछ क्षणों के लिए आसमान में अंधेरा हो जाता है, या यूँ कहें कि दिन में रात हो जाती है।

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सूर्यग्रहण के प्रकार

चन्द्रमा द्वारा सूर्य के बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढ़के जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।

1. पूर्ण सूर्य ग्रहण (Full Solar Eclipses)

पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृ्थ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है जिसके फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृ्थ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृ्थ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है।

2. आंशिक सूर्य ग्रहण (Partial Solar Eclipses)

आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात चन्दमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण के प्रभाव में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है।

3. कुंडलाकार ग्रहण (Annular Eclipse)

कुण्डलाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात चन्द्र सूर्य को इस प्रकार से ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहलाता है।
ज्योतिष विज्ञान एवं खगोल शास्त्रीयों  की दृष्टि से सूर्य ग्रहण

ग्रहण प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार है। ज्योतिष के दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो अभूतपूर्व अनोखा, विचित्र ज्योतिष ज्ञान, ग्रह और उपग्रहों की गतिविधियाँ एवं उनका स्वरूप स्पष्ट करता है। 

उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाने वाली रेखाओं को रेखांश कहा जाता है तथा भूमध्य रेखा के चारो वृ्ताकार में जाने वाली रेखाओं को अंक्षाश के नाम से जाना जाता है। सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। जब चन्द्रमा क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हों। चन्द्र और राहू या केतु के रेखांश बहुत निकट होने चाहिए। चन्द्र का अक्षांश लगभग शून्य होना चाहिये और यह तब होगा जब चंद्र रविमार्ग पर या रविमार्ग के निकट हों, सूर्य ग्रहण के दिन सूर्य और चन्द्र के कोणीय व्यास एक समान होते हैं। इस कारण चन्द सूर्य को केवल कुछ मिनट तक ही अपनी छाया में ले पाता है। सूर्य ग्रहण के समय जो क्षेत्र ढक जाता है उसे पूर्ण छाया क्षेत्र कहते हैं।

खगोल शास्त्रियों के अनुसार एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं। किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिए। वर्षभर में 7 ग्रहण तक संभव हैं,  फिर भी 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं।

साधारणतय सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के बहुत बड़े भाग में प्राय सौ मील से कम चौडे और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में दिखलाई पडते हैं। 
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उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास (जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है) ग्रहण हो तो गुजरात में खण्ड सूर्यग्रहण (जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढंकता है) ही दिखलाई देगा और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा।

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वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य ग्रहण

चाहे ग्रहण का कोई आध्यात्मिक महत्त्व हो अथवा न हो किन्तु दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए यह अवसर किसी उत्सव से कम नहीं होता। क्यों कि ग्रहण ही वह समय होता है जब ब्राह्मंड में अनेकों विलक्षण एवं अद्भुत घटनाएं घटित होतीं हैं जिससे कि वैज्ञानिकों को नये नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 

1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मंडल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था। आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी। चन्द्रग्रहण तो अपने संपूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौडे क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं। 

संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही संभव है। यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाए तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूंजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाए तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी संभव हो सकती है।

 सूर्य ग्रहण और हिन्दू धर्म

ग्रहणों की पौराणिक कथा


विभिन्न परंपराएं मानव और प्राकृतिक घटनाओं को प्रभावित करने के साथ चंद्र और सौर ग्रहण का श्रेय देती हैं। तिब्बती बौद्ध कहते हैं कि चंद्र ग्रहण के दौरान, हमारे कार्य, चाहे अच्छा हो या बुरा, एक हजार गुना गुणा होता है। ज्योतिषियों का कहना है कि एक ग्रहण की घटना युद्धों, राजनीतिक घटनाओं और प्राकृतिक घटना (जैसे, भूकंप) को ट्रिगर कर सकती है।

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, ग्रहण बुरे होते हैं, क्योंकि वे राहु का बदला दर्शाते हैं।

शिक्षाशास्त्र में, भगवान स्वामीनारायण कहते हैं:

सूर्य या चंद्रग्रहण के समय, तुरंत सभी गतिविधियों को रोक दें और शुद्ध अवस्था में भगवान के नाम का जाप करें। ग्रहण के बाद, घरवालों को अपने पहने हुए कपड़ों के साथ स्नान करना चाहिए और फिर अपने साधनों के अनुसार दान करना चाहिए।

हिंदू धर्मग्रंथ, पुराण (वेद व्यास द्वारा लिखित), इस कहानी की व्याख्या करते हैं कि ग्रहण कैसे होता है:

देवों (देवताओं) और दैत्यों (राक्षसों) द्वारा समुद्र मंथन के बाद, अमृत मिला। ऐसा हुआ कि राक्षसों को पहले अमृत मिला, लेकिन देवों ने मोहिनी नामक एक अप्सरा (जो की विष्णु जी की अवतार मानी जाती है) ने राक्षसों को बरगलाया और उनसे अमृत छीन लिया। एक बार जब देवों को अमृत प्राप्त हुआ, तो उन्होंने भगवान से सभी देवताओं को समान रूप से अमृत वितरित करने के लिए कहा। जब ईश्वर सभी को अमृत प्रदान कर रहा था, एक राक्षस, जिसे राहु नाम दिया गया था, ने योगिक शक्तियों के माध्यम से खुद को देव में परिवर्तित कर लिया और अमृत प्राप्त करने के लिए कतार में बैठ गया और इस प्रकार अमर हो गया। वह सूर्य-देवता और चंद्रमा-देवता के बीच बैठ गया। वे दोनों एक देव के रूप में राक्षस को पहचान गए। जब भगवान ने अनजाने में राहु को अमृत दिया, तो सूरज और चंद्रमा दोनों ने खुलासा किया कि यह एक राक्षस था। इसलिए भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र के साथ तुरन्त राहु को मार दिया। लेकिन जब तक परमेश्वर ने राहू को मारा, तब तक वह अमृत पी चुका था। अम्रत राहु के गले तक पहुँच गया था, जिससे उसका सिर अमर हो गया। इस प्रकार राहू का सिर ग्रह बन गया। चूँकि सूर्य-देवता और चंद्रमा-देवता ने भगवान को राहु के बारे में बताया था, इसलिए राहु उनसे बहुत निराश थे और उनसे घृणा करते थे। इसलिए यह माना जाता है कि वर्ष के कुछ निश्चित समय के दौरान राहु सूर्य और चंद्रमा को अपने मुंह (ग्रहन) द्वारा धारण करता है, इसलिए सौर और चंद्र ग्रहण का अस्तित्व है।


सूर्य ग्रहण में क्या करें, क्या ना करें?


वैदिक काल से पूर्व भी खगोलीय संरचना पर आधारित कलैन्डर बनाने की आवश्कता अनुभव की गई। सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण तथा उनकी पुनरावृत्ति की पूर्व सूचना ईसा से चार हजार पूर्व ही उपलब्ध थी। ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि के परिवार के पास यह ज्ञान उपलब्ध था। वेदांग ज्योतिष का महत्त्व हमारे वैदिक पूर्वजों के इस महान ज्ञान को प्रतिविम्बित करता है।

ग्रह नक्षत्रों की दुनिया की यह घटना भारतीय मुनियों को अत्यन्त प्राचीन काल से ज्ञात रही है। प्राचीन काल में महर्षियों नें गणना कर दी थी। इस पर धार्मिक, वैदिक, वैचारिक, वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण के ज्ञान को देने वाले प्रथम आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाश काल अर्थात वैदिक काल से ग्रहण पर अध्ययन, मनन और परीक्षण होते चले आए हैं।

हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।

पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की संतान हैं। चंद्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।

ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी  स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्‌मण को दान देने का विधान है। कहीं-कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है। पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है। ग्रहण के बाद डोम को दान देने का अधिक माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।

सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये। बूढे, बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना - ये सब कार्य वर्जित हैं। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। 'देवी भागवत' में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये।


सूर्य ग्रहण के अलावा चंद्र ग्रहण का भी  जीवन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ता है. किन्तु उसके बारे में कभी और. अभी के लिए इसे यहीं समाप्त करते हैं. उम्मीद है आपको यह जानकारी अछि तथा महत्त्वपूर्ण लगी होगी.


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